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Monday, October 4, 2010

रात के आलम से पूछो


रात के आलम से  (बहरे-रमल-मुसम्मन-सालिम)

रात के आलम से पूछ शमा जली या फिर हम जले
थम गईं तो सौ बार धड़कने फिर भी न दम निकले

रोज़  तो   दोस्त   रहते  हैं  बारहा   मेरे   पास  घिरे
छोड़ जाते सारे तनहा मुझको तो ज्यों ही  शाम ढले

हँसता  है ये   ज़माना  यूँ  देख   शिकस्त अब मेरी
फ़ासिले उतने बढ़े  जितने  क़दम  उनकी ओर चले

खाली ना होता ख़ज़ाना  दर्द और  ख़लिश  का मेरा
इक नया वो ज़ख़्म दे  जाते जो  भरने लगते पहले

ज़िन्दगी की धूप में ना जाने झुलसे किस क़दर हम
आख़िरी तो  शाम गुजरे   उनकी  ज़ुल्फ़ें  रेशम तले


 .

2 comments:

  1. "जिन्दगी की धूप में न जाने झुलसे किस कदर हम
    आखिरी तो शाम गुजरे उनकी जुल्फे रेशम तले"
    ...........भावुक मन की अथाह प्यास को दर्शित करती , अत्यंत भावनापूर्ण ग़ज़ल . बधाई के पात्र हैं रचनाकार

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  2. ज़िन्दगी हसीन न सही ......एक वहम ही सही कि आखिरी शाम हसीन हो ...
    इसी इन्तज़ार में बस जीये जा रहे हैं कि....

    " आख़िरी तो शाम गुजरे उनकी ज़ुल्फ़ें रेशम तले "

    सर , आपकी बधाई के लिये दिल से शुक्रिया |

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