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Tuesday, December 7, 2010

यक़ीनन ही मुहब्बत है

यक़ीनन ही मुहब्बत है
(बहरे-हजज-मुसम्मन-सालिम) 

वही रुत है मगर आज  फ़जाओं  में  इक  मसर्रत है
हवा  अटखेलियाँ  करती  या  शाखों  की   शरारत है

जी करता  है बेवज़ह  सही  जी भर उनकी करूँ बातें
ज़माने को ज़िक्रे  दिलबर  से जाने क्यों शिकायत है

सुना था  आदमी  पर  जादू का  भी  असर  पड़ता है
न  मानो  यार  तुम पर  ये मुद्दआ  इक   हक़ीकत है

कर रहे हो रश्क़ क्यों तुम इस तरह मेरी किस्मत से
थी कल तक संग तेरी वो मगर अब मेरी किस्मत है

जो देखा  आपकी  मख़मूर२  आँखों में अक़्श अपना
न  संवरने  से  मतलब  ना  आईने   की   ज़रूरत है

इक  सुरूर  ख़ुशी का  मुझ पे यूँ ही छाया सा रहता है
मेरे दोस्तों  को मेरे रुख़ पे  दिखती इक  सबाहत है

हसीं   परछाईं   कोई   बारहा४  आ  जाये  ख़्वाबों  में
"विभूति"  समझ  जरा ये तो यक़ीनन  ही मुहब्बत है

१.ख़ुशी,२.नशीली,३.सुन्दरता,४.प्रायः

Wednesday, November 10, 2010

अधूरी लकीर

 अधूरी लकीर
(बह्‌रे-रजज-मुसम्मन-सालिम)

वक़्त ख़ुदा को  था  कम, लिखी,  मगर तक़दीर अधूरी सी
कोशिश-ए-मुशव्विर न थी कम मगर तसवीर अधूरी सी

ना जाने   कितने  अरमां  से  हमने   सजाया   आशियां
जो तुम   न आये   इस मकान   रही  तामीर अधूरी सी

वो   कहते हैं   कि  हथेलियाँ   मेरी तो   बहुत   हसीन  है
जिस  रेखा  से  तुम  मिलते  है वो  ही  लकीर अधूरी सी


स्याही  से  लिखने  कहते  हो इस अनसुने  अफ़साने को
ख़ूने -जिगर   से  भी  लिखा   मगर  तहरीर  अधूरी  सी

रब   ने   तराशा   उज़्व   तेरा ,  वक़्त   मेरा   काटकर
क्या   दे  मिसाल  यहाँ  कोई,  है  हर  नज़ीर अधूरी सी

है  नज़र   का   शायद  वही  रोग,  दिलबर समझा करो
जो  थक   हारे  सारे  हकीम , सब   तदबीर   अधूरी  सी

१.चित्रकार, २.निर्माण, ३.लेख ४.अंग, ५.तुलना.                 

Monday, October 4, 2010

रात के आलम से पूछो


रात के आलम से  (बहरे-रमल-मुसम्मन-सालिम)

रात के आलम से पूछ शमा जली या फिर हम जले
थम गईं तो सौ बार धड़कने फिर भी न दम निकले

रोज़  तो   दोस्त   रहते  हैं  बारहा   मेरे   पास  घिरे
छोड़ जाते सारे तनहा मुझको तो ज्यों ही  शाम ढले

हँसता  है ये   ज़माना  यूँ  देख   शिकस्त अब मेरी
फ़ासिले उतने बढ़े  जितने  क़दम  उनकी ओर चले

खाली ना होता ख़ज़ाना  दर्द और  ख़लिश  का मेरा
इक नया वो ज़ख़्म दे  जाते जो  भरने लगते पहले

ज़िन्दगी की धूप में ना जाने झुलसे किस क़दर हम
आख़िरी तो  शाम गुजरे   उनकी  ज़ुल्फ़ें  रेशम तले


 .