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Sunday, July 8, 2012

मेरे हुस्न पर शे'र कहें





मेरे  हुस्न  पर शे'र  कहें , देखो  हुस्न  फ़रमाते हैं
वो  फ़न  को आज़माते हैं  कि मुझको आजमाते हैं

कहीं  फिसल  न क़लम  जाए  मेरा उनके सरापे में
अजी  लिखने  से  पहले  यार   सौ बार घबराते हैं

देख  लिया  रूप  वो  भी शायरी  के  ही बहाने जी
तमन्ना  में  ही जिनकी  चाँद - सूरज  आते-जाते हैं

हो ख़ुशक़िस्मत ऐ लफ्ज़ हसीं जो छुए हो बदन उनके
जहाँ  जाने  से  मेरे  ख़्‍वाब  भी  यार  शरमाते  हैं

पूछा उनसे कि किस उज़्व पर है उनको नाज़ ज़ियादा
साँसों  के उठते - गिरते  से  इशारों  में  बताते  हैं


( बिहार उर्दू अकादमी द्वारा 07-07-12 को उर्दू भवन , पटना में आयोजित मुशायरा में पढ़ी गई ग़ज़ल  .... ) 

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Sunday, June 24, 2012

अपने घर बुला के देखो


अपने घर बुला के देखो


बेहद  हसीं  है  ये  जहाँ ,  बीते   ग़म  भुलाके  देखो
बहुत हँसे होठों से कभी दिल से खिल-खिलाके देखो

रंगीनियों   को   भूल   जाओगे    सुनो   दुनियावालों
जश्ने  - दिवाली  में कभी  हिन्दुस्तां तुम आ केदेखो

देख  गिरे   पैसे  को  उठाना   दुनिया  का  दस्तूर  है
बस एक  गिरे  इन्सान को दिलबर तुम उठाके देखो

सिमटे  हुए  अपने  घरों  में  रोशनी  कर  लेना  क्या
अँधेरा  दूर   पड़ोस  का    हो  यूँ   दीप  जलाके  देखो

फूँकोगे   कितने   और   घर   आतंक   के  सौदागरों
क्या  होता  है  घर का बसाना  एक घर बसाके देखो

अरमान  कितने  आरजू   कितनी   दबा  रक्खे  मैंने
ख़ल्वत  रातों  में  मुझे  कभी  अपने घर बुलाके देखो

       ( प्रस्तुत ग़ज़ल हिन्दी की सम्मानित पत्रिका ' जनपथ ' के ग़ज़ल-विशेषांक (फरवरी-मार्च  12) में प्रकाशित . )