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Sunday, June 24, 2012

अपने घर बुला के देखो


अपने घर बुला के देखो


बेहद  हसीं  है  ये  जहाँ ,  बीते   ग़म  भुलाके  देखो
बहुत हँसे होठों से कभी दिल से खिल-खिलाके देखो

रंगीनियों   को   भूल   जाओगे    सुनो   दुनियावालों
जश्ने  - दिवाली  में कभी  हिन्दुस्तां तुम आ केदेखो

देख  गिरे   पैसे  को  उठाना   दुनिया  का  दस्तूर  है
बस एक  गिरे  इन्सान को दिलबर तुम उठाके देखो

सिमटे  हुए  अपने  घरों  में  रोशनी  कर  लेना  क्या
अँधेरा  दूर   पड़ोस  का    हो  यूँ   दीप  जलाके  देखो

फूँकोगे   कितने   और   घर   आतंक   के  सौदागरों
क्या  होता  है  घर का बसाना  एक घर बसाके देखो

अरमान  कितने  आरजू   कितनी   दबा  रक्खे  मैंने
ख़ल्वत  रातों  में  मुझे  कभी  अपने घर बुलाके देखो

       ( प्रस्तुत ग़ज़ल हिन्दी की सम्मानित पत्रिका ' जनपथ ' के ग़ज़ल-विशेषांक (फरवरी-मार्च  12) में प्रकाशित . )


2 comments:

  1. बहुत सुन्दर सन्देश देती हुयी ,सुन्दर रचना. जिसमें अंत में हास्य का तड़का भी लगा दिया गया .

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  2. आपका बहुत-बहुत आभार कि आपको यह पसन्द आयी ....
    जहाँ तक अन्तिम शे’र " ख़ल्वत रातों में मुझे कभी अपने घर बुलाके देखो " का सवाल है तो यही कहूँगा कि मुझे लगता है कि तमाम ग़ज़ल यहीं आकर तमाम होती है .

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