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Tuesday, October 5, 2010

दर्द दुगुना हो जाता , बस शाम आते ही


2 comments:

  1. भाषा पर जितनी अच्छी पकड़ , उतनी सुन्दर कला भावों और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति की . जिसके पीछे गहन अनुभूति स्वतः झलकती है. तरल भावों से समन्वित प्रशंसनीय ग़ज़ल

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  2. यह मेरी पहली ग़ज़ल है . मैने इसे 1996 में लिखा था . उस समय मुझे ग़ज़ल की कोई जानकारी नहीं थी . मगर इसका एक शे’र आज भी मेरी कई रचनाओं पर भारी है ----

    चाहा तो कई बार ऐ दिल,तौबा कर लूँ मैकशी से
    पर वादें टूटने लगती हैं सामने ज़ाम आते ही

    ज़िन्दगी में सही-गलत जानते हुए भी इन्सान सही निर्णय नहीं ले पाता ....सामने ज़ाम आते ही ।

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